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Tuesday, January 12, 2010

दिमागी संसार



उस दिन जब मैंने दिमाग जो अपना खोला
गिरा कही जैसे बम का गोला
इतना कुछ समेटे हुए
कैसे सीधी खड़ी थी एक नन्ही सी जान!

दिमाग है या यह भूल भुलैय्या
विस्तार कर सके जो बन जाये कवैय्या
थी उसमे बातें कितनी सारी
जैसे बाग़ में रोपी थी छोटी छोटी क्यारी
यादें भी थी समाये कारी
जिसने किया मेरा दिल इतना भरी!

पछतावा भी था कही छिपा
फायदा तो अब है नहीं
कर दो इसको भी दफा

कही दर्द भी सर उठाये था
मुआ, कही मोह लगाये था
बेचैनी भी हो रही थी हलकी सी
जैसे हवा बह रही थी पगली सी

खुशियों के दो पल भी मिले हमें वही
जो सपनो में खो गए कही
उम्मीदे फिर भी बची थी कुछ
कैसे कहे जीवन है तुच्छ!

देख के यह नज़ारा
सर चकरा गया हमारा
कर दो इसको पहले जैसा बंद
ख़तम करो यह द्वन्द!

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