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Wednesday, July 28, 2010

पहचान!




यूँ हुई मेरी मुझसे पहचान
जिससे थी मैं बरसो अनजान
जब दाव पर लगा मेरा आत्म-सम्मान
आत्मा भोज तले हो गई बेजान
छूटा आँचल और वही पुराना मकान
खुद की खोज करुँगी ली यह बात मन में तब ठान
फिरती रही गलिया ना छोड़ी एक भी दुकान
हुई फिर भी नहीं दुविधा आसान
क्या ढुंढू मेरी पहचान?
कौन बतलायेगा यह सयान?
मुरझाई, बिलखती, छूटने को गए जब मेरे प्राण
याद आये तुम भगवन
सार्थक हो खोज, कर दो मेरा कल्याण
प्रज्वलित एक ज्योति ने तब बाटा मेरा ध्यान
अच्छे कर्म की पूंजी की तेरी शान
उसी में तो रहते है सियाराम!
निरंतर सद्भावनाओ का संचार
यही तो है मेरी खोज अर्थपूर्ण आधार!

Monday, June 14, 2010

स्वयं की खोज – एक अदभुत यात्रा!




एक अनोखी अंतहीन यात्रा
ना कहो इसे बिंदू या मात्रा!

समय के चक्रव्यूह से परे
निर्विकार, निर्मल और स्फूर्ति भरे
उस ‘स्वयं’ को खोजने चले!

जो देख के भी ना दिखे
जो समझ से भी जटिल रहे!
जो ज्ञात हो के भी अज्ञात लगे!

यह विशालकाए समुन्द्र
में उस कुचली हुई छोटी सी बूँद
के अस्तित्व के समान है
जो, ओझल और तिरस्कृत होते हुए भी
अपने होने का आभास कराती है!

कोई कहे, ज्ञान से इसको पा लो
कोई बिरला चाहे, ध्यान से इसमें समा लो
कोई इसे कर्म में ढूंढे,
स्वयं फिर भी अपरिचित लगे!

स्वयं का यही सार
जीवन के है दिन चार
खुशिया लुटाओ खुले हाथ
लिए संग अपनों को साथ
भावनाओ को जीओ भरपूर
ना रहो, स्वयं से दूर
भीग जाओ मधुर क्षणों के रस में
अनुभव करो स्वतंत्रता हसी में
सपनो पर रखो पूरा विश्वास
छोड़ना नहीं कभी तुम आस
यही है, तुम्हारे होने का प्रयास
सच्चा, स्वयं का आभास!