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Saturday, March 6, 2010

हाय! बाघिन माँ का आँचल खो गया!



वह घुफा के द्वार पर निशब्द खड़ी थी
जहाँ से सारा वातावरण
धुन्धलाये शीशे की तरह
नग्न दिखलाई पड़ रहा था!

चन्द्रमा की उजली किरण में
उसके शरीर की आभा
और भी दमक रही थी!
परन्तु,
उसकी आँखों में भरा दर्द
झलक-झलक कर उस सुने वातावरण को दुखमय बना रहा था!

हौले से वह अपने गर्भ को सहला रही थी
दुःख और पीड़ा से मचल भी रही थी
आँखों का तेज़ अब निस्तेज हो चला था
रात की कालिमा गहराती चली थी

गर्भ के हिल्लोरे
जब बहुत जोर मारे
एक नन्हा शावक
आ गया द्वारे!

मृत रात में जब बूँदें भी पड़ी है बेजान
किसको होगा उसका और शावक का ध्यान
अपनी पीड़ा भुला
देखने लगी क्या उसके गर्भ का फूल खिला?
जो उसके पंजो के बीच
छुपा, सुस्ता रहा था !

प्यार से वह अपने
नवजात शिशु के कोमल शरीर को
चाट-चाट कर साफ़ करने लगी
मानो, उसको पुचकारने लगी तब
बेटे, जीवन को महसूस करो
अपनी माँ की तपस्या फलीभूत करो!

हिलाया, दुलाया
शावक फिर भी रहा मौन
हाय, एक और जीवन का अंत
फर्क अब क्या पड़े
अगर रात के बाद आ भी जाए बसंत!

काली बीती जाए यह रात
खोते जाए जज़्बात
बाघिन माँ खड़ी घुफा के द्वारे
रास्ता ताके, जाने कौन सी दिशा बहे यह बयार!

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1 comments:

Alka said...

bahut achcha....

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