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Tuesday, August 31, 2010

मैं!



जकड़ी रहती हूँ
मैं
अपने आप मैं!

बिधा मन लिए
बातों करती, चुप-चाप मैं!

पार ना कर पाई
यादों की परिधि और अमिट छाप लिए!

घावो की टीस भूलती
हर दिन करती पाप मैं!

आँखों की दूसरी और की कहानी
गढ़ती, सुनाती, जीती बिना संताप मैं!

जकड़ी रहती हूँ
मैं
अपने आप मैं!

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2 comments:

मनोज कुमार said...

बेहतरीन चित्रों से सजी उत्तम कविता।

Aryan said...

waoooooooo

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