सोने की चिड़िया कहलाती थी
खुद पर कितना इतराती थी
अपने मजबूत परो की उड़ान से
सारी दुनिया पल में नाप आती थी!
मेरी उड़ान की अद्भुत गति
कर गई कितनो के सयम की क्षति
यही से शुरू हुई मेरे विनाश की कहानी
कैद हुई, उजड़े पर
कैसे कहू इसे अपनी ही ज़बानी!
रोई माँ, करहाये बच्चे
आपत्ति भारी, हम कब तक सहते
हाथ बढे, कंधे मिले
कदम चले, यह फिर कभी ना रुके!
काट बेड़िया, मुझे आजाद कराया
मेरी भुझी हुई लौ को फिर से जगाया
धन्यवाद पिता का
जो उजड़ने नहीं दिया अपना सरमाया!
लिए ग़ुलामी की गहरी छाप
मैं देखने लगी सपने
जिसमे सजाया मैंने अपना आज
सवालो में बिधा मन
क्या लौटा लाऊँगी अपना खोया सम्मान?
सवालो के घेरे में
फँसा है मेरा अस्तित्व
समस्याएं अनगिनत
करती हूँ उम्मीद की नीयत!
मेरी सफलता की कुंजी ही
मेरे बच्चो के जीवन की पूंजी
बेहतर आज, सफल भविष्य
इससे ज्यादा नहीं है मेरी चाहत
खुशिया भरपूर
सुविधाए परिपूर्ण
और क्या चाहिए, एक माँ को उसके जनम दिवस पर...!
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