माँ, मैं भी मेला देखने जाऊंगा
तमाशे, रंग बिरंगे गुब्बारे
इनसे अपना मन बहलाऊंगा!
हाँ माँ, आज तो मैं मेला देखने जाऊंगा!
देखो, सब जा रहे है
राजू, मोहन, रीना, मीना
कितना मुझे जला रहे है
नए-नए कपडे पहने
सब बड़ा इतरा रहे है
जाने दो ना, मैं भी मेला देखने जाऊंगा!
डरना मत, झूले में मैं नहीं घबराता
चाट, पकौड़े खाने में तो और भी मज़ा आता
बँदूक पर निशाना लगा, ईनाम मैं ही पता
हर प्रतियोगता में नंबर 1 मैं आता
अब तो बात मान लो, मेला देखने जाऊंगा!
2 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
हरीश प्रकाश गुप्त की लघुकथा प्रतिबिम्ब, “मनोज” पर, पढिए!
बालमन का अच्छा चित्रण.........
upoendra ( www.srijanshikhar.blogspot.com )
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