यूँ हुई मेरी मुझसे पहचान
जिससे थी मैं बरसो अनजान
जब दाव पर लगा मेरा आत्म-सम्मान
आत्मा भोज तले हो गई बेजान
छूटा आँचल और वही पुराना मकान
खुद की खोज करुँगी ली यह बात मन में तब ठान
फिरती रही गलिया ना छोड़ी एक भी दुकान
हुई फिर भी नहीं दुविधा आसान
क्या ढुंढू मेरी पहचान?
कौन बतलायेगा यह सयान?
मुरझाई, बिलखती, छूटने को गए जब मेरे प्राण
याद आये तुम भगवन
सार्थक हो खोज, कर दो मेरा कल्याण
प्रज्वलित एक ज्योति ने तब बाटा मेरा ध्यान
अच्छे कर्म की पूंजी की तेरी शान
उसी में तो रहते है सियाराम!
निरंतर सद्भावनाओ का संचार
यही तो है मेरी खोज अर्थपूर्ण आधार!
1 comments:
अच्छी कविता लिखी हैं आप :)
Post a Comment