भूल गई थी
तुम्हारी भी एक दुनिया है!
तुम्हारा सूनापन
मेरा अकेलापन
तुम्हारे सूखे होठ
मेरी खिलखिलाती हँसी
तुम्हारे ठहराव
मेरे अन्तरंग भाव
तुम्हारे घाव की टीस
मैं बैठी थी आँखें मीच
जब हम मिले
फूल बहारो में खिले
मिट गए थे सभी फासले
पर भूल गई थी की
तुम्हारी भी एक दुनिया है!
तुम्हारी सीमाएं
तुम्हारी परिस्तिथियाँ
तुम्हारी ऊचाइयाँ
तुम्हारी गहराइया
तुम्हारी सच्चाईया
तुम्हारे नकाब
मुझसे तो अलग है ना!
10 comments:
बहुत ही भावपूर्ण रचना है।
टंकण की अशुद्धियां दूर कर लें।
हसी, बैठी की , थी की, तुम्हारे परिस्थियां, तुम्हरे सच्चाई,
भावनाओं से ओत-प्रोत अच्छी कविता.
कुछ अलग होता है और जब सामंजस्य नहीं हो पता तो अलगाव हो जाता है ..भावपूर्ण रचना
बहुत भावपूर्ण रचना..
मिलकर भी अकेलेपन का एहसास -
सुंदर प्रस्तुति -
बहुत ही भावपूर्ण रचना,अकेलेपन की सुंदर प्रस्तुति
rachanaji ek sundar kavita ke srijan ke liye aapko meri badhai aur shubhkamnayen
@ मनोज कुमार: अशुद्धियां बताने के लिए धन्यवाद. सभी दूर कर दी गई है!
@ Kunwar Kusumesh,संगीता स्वरुप ( गीत ), Kailash C Sharma, anupama's sukrity !, कुश्वंश, जयकृष्ण राय तुषार - आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद! आपके शब्द मेरा उत्साह बढ़ाते है!
Good one..
Kashh mere pass bhii kuchh Nice words hotee too Sayy " I really Like it "
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