रोज़ सबेरे
चौके में
चूल्हे के पीछे
कहानी वही गढ़ती हूँ
औरत हूँ, बीज लिए फिरती हूँ!
बर्तन का शोर
धुंए की हल्की भोर
बनी मेरी आवाज़
लगे मधुर, बिना कोई साज़
औरत हूँ, ख़ामोशी को पढ़ती हूँ!
पति का सम्मान
बच्चो की मुस्कान
घर की मर्यादा और मान
ध्यान सबका मैं रखती हूँ
औरत हूँ, भविष्य रचती हूँ!
खुली हवा में घुटती हूँ
बिना हथियार लडती हूँ
माटी से बनी
गूंगी गुडिया
औरत हूँ, रोज़ बनती और टूटती हूँ!
5 comments:
ati sundar .............. भावपूर्ण कविता
रचना, दिल छू गयी ये कविता.....बहुत अच्छा लिखा है .......
Deep thoughts from a expressive woman's inner self! Loved it! :)
A very practical, thoughtful and touching poem.
Very Touching...... I liked It.
Not only this one but all of them which you have posted. After reading I am feeling very good. So keep writing!!
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