Thursday, October 21, 2010
नन्हा पत्ता!
कोने के उजड़े घर के बरामदे में
अकेला पेड़ अपनी आखिरी पत्ते को निहार रहा था
मंद-मंद मुस्कुरा रहा था
जैसे बीते यौवन को पुकार रहा था!
आंधी आई
उसे भी शरारत ही भाई
वेग बढ़ा पेड़ पर घिर आई
नन्हा पत्ता फिर भी पीछे ना हटा
हिम्मत कर, अपने स्थान पर ही डटा रहा!
बादलो ने देखा
आंधी की हुई दुर्दशा
दौड़ पड़े, टूट पड़े
धमाधम पानी के बुलबुले फूट पड़े
निडर पत्ता, सब सह गया
पानी को अमृत समझ कर पी गया!
बीती काली रात, लाई उजली सुबह साथ
सूरज का दमकता मुख सामने था
कोमल पत्ते को जीवन अभी मिला था
सोचने लगा की सपना था या कोई भरम
मुस्कुरा किया किरणों का स्वागत
नया दिन और एक नई शुरुआत
पेड़ पिता का ले आशीर्वाद
नन्हा पत्ता खिल उठा
आज फिर वो जी उठा!
Wednesday, October 20, 2010
एक दिन…!
तुम और मैं
खड़े मीलों पार
बीच है ना नाव और पतवार
अब कैसे कहे मन की बात
जानते है यह दोनों हमें है प्यार!
एक दिन…!
सच है, हमारे धर्म है अलग
फिर भी आँखों में है अपनी
प्यार की गहरी झलक
क्यूँ नाम तुम्हारा सुनके
चेहरा मेरा जाता चहक!
एक दिन….!
क्या वो दिन आएगा?
जब हम कर सकेंगे
एक दूसरे से वही बात
जब टूट जाएगी
बीच में खड़ी हर दीवार!
एक दिन….!
तुम तुम रहोगे
मैं मैं रहूंगी
समुन्दर पार
समेटे सपने सजे खुली आँख
बन जाएगी बिगडती सब बात!
एक दिन…!
जब तुम कह सकोगे मुझसे
की तुमसे है मुझे प्यार
बिना जिझक और डर
ऊचे पेड़ पर बनायेंगे
बसेरा अपना जहाँ खुशिया खड़ी द्वार!
एक दिन…शायद ऐसा होगा…हाँ, सब अच्चा होगा!
Tuesday, October 19, 2010
तीन त्रिवेणी- 10
1. झुंझलाते, लड़ते जो तुमने कहा था
आधी कच्ची नींद में जो मैंने सुना था
बात शायद अब तक अधूरी है?
2. हर आहट पर
मुड कर मैंने पीछे देखा
हसी तुम्हारी अब तक गुदगुदा रही है!
3. सूरज फीका लगता है
चाँद भी ठंडा लगता है
तुम्हारे हाथों की गर्मी में पूरी तरह से पिघल गई हूँ!
Monday, October 18, 2010
तीन त्रिवेणी- 9
1. सोचती हूँ! जब तुम नहीं मिले थे
फूलो के रंग खिले नहीं थे
क्या तुम बहार साथ लाये हो?
2. खाली मन, खाली आँखें
देख रही थी टूटा सपना
अच्छा, तुमने रंगों को आँखों में छुपाया था?
3. तुम्हारा और मेरा फासला गहराता है
मन मेरा उसमे डूबता जाता है
आओ, समुन्दर में ही घर बना ले!
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मेरी सीमा
मेरे कंगन मेरी सीमा दिखाते है
उनकी गोलाई के घेरे में ही
मेरे साँसों की लडिया बंधी है
जो मैंने इसको पार करने की सोची
निशब्दता मुझे डस लेगी
खालीपन मुझ पर हावी होगा
फिर वो तय करेंगे,
मेरी नई सीमा क्या है?
Wednesday, October 6, 2010
औरत हूँ!
रोज़ सबेरे
चौके में
चूल्हे के पीछे
कहानी वही गढ़ती हूँ
औरत हूँ, बीज लिए फिरती हूँ!
बर्तन का शोर
धुंए की हल्की भोर
बनी मेरी आवाज़
लगे मधुर, बिना कोई साज़
औरत हूँ, ख़ामोशी को पढ़ती हूँ!
पति का सम्मान
बच्चो की मुस्कान
घर की मर्यादा और मान
ध्यान सबका मैं रखती हूँ
औरत हूँ, भविष्य रचती हूँ!
खुली हवा में घुटती हूँ
बिना हथियार लडती हूँ
माटी से बनी
गूंगी गुडिया
औरत हूँ, रोज़ बनती और टूटती हूँ!
Saturday, October 2, 2010
Sometimes!
Sometimes, mirror does not show my real reflection.
Sometimes, word does not highlight my essence
Sometimes, the eye does not show my true color
Sometimes, I am not what I am.
Sometimes, I get lost when I am here
Sometimes, I lose when I win
Sometimes I cry when I laugh
Sometimes, I am that I am not.
Unmemorable Memories!
Unmemorable memories are remembered the most
Like a devilish ghost
It creeps my mind
Hallucinating my thinking
Blabberblah…words start sinking!
Unmemorable memories
Knock the door
And, I watch silently!
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