हमारी हिंदी न्यारी है
सौत ‘अंग्रेजी’ के डंक से ग्रसित बेचारी है
राष्ट्रभाषा होते हुए भी
अपने ही घर में पराई है
गुज़र गए दिन जब
हिंदी महारानी थी
अंग्रेजी पड़ी उसके पाँव
हिंदी अभिमानी थी
बदला स्वरुप, बदली काय
हिंदी पर पड़ गई घनघोर काली छाया
अपने अस्तित्व को बचाती
हिंदी अपने ही आँगन सकुचाती है
हिंदी विकास चाहिए तो
मिलाना होगा हाथ
पैरो की बेडी नहीं
बनाओ हिंदी को सर का ताज
1 comments:
Bahut Khoob...
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