बाहर तब रात थी
ऊँघती आँखों से हमने देखा था
सरसराते कानों से क्या कुछ ना सुना था
कपकपाते गले पर तो ताला ही जड़ा था
कलेजा हाथो में समेटे कितना सहा था
बाहर तब रात थी
समुन्दर भी सकुचाया था अपने आप में सिमटता
आँसू बहा रहा था
कौंधती रौशनी के बवंडर
इंसानी खून की होली का वक़्त आया था
बाहर तब रात थी
सूनी हर आँख थी
अपनों के साथ छूटे
वारिस और चिराग बुझते
असहाय, विवस सब लुटते
बाहर तब रात थी
फैलती आग की लपटों के कोहरे
मौत लायी थी तडके भी सवेरे
मानवता की पुकार
चीख रही थी हर बार
बाहर तब रात थी
उजड़ी हर शाख थी
खून के छीटों से सनी
गोलिया और धमाको से गूंजती
कोसती, गुज़रती ना भूलने वाली
मनहूस वही रात थी!