Thursday, April 14, 2011
खिड़की!
खुलती है एक खिड़की
उस नभ की ओर
रौशनी भरी है जहाँ चऊ ओर
अँधेरा नहीं, हो रही मधुर भोर!
बाहें पसारे
आवाज़े पुकारे
सुनाई दे रहा है शोर
मत रोक, आ जाओ मेरी ओर
खोल मन की गांठे
क्यूँ बैठे हो ऐसे ऐठे
परत दर परत
सैकड़ो आवरान है झूठे
ढूंढ़ पहचान
तेरी अज्ञानता में ही छुपा ज्ञान
मत रोक, आ जाओ मेरी ओर
अँधेरा नहीं, हो रही मधुर भोर!
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